जीवन में ऐसे कई अवसर आते हैं जब व्यक्ति धर्म – संस्कृति से संबंधित मूलभूत प्रश्नों का उत्तर जानना चाहता है | धर्म क्या है ? संस्कृति क्या है ? धर्म और संस्कृति का जीवन में क्या उपयोग है ? इनका जीवन में उपयोग है भी या नहीं ? जैसे मौलिक प्रश्न व्यक्ति को खूब उलझाते हैं |
लेकिन हम सबके जीवन को प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करने वाले ऐसे मूलभूत प्रश्नों का ऐसा कोई उत्तर अधिकांश लोगों को मिल नहीं पता जिससे वे संतुष्ट हो सकें | इसलिए आस्था आदि के नाम पर व्यक्ति कुछ-कुछ सांस्कृतिक गतिविधियों का हिस्सा भले बनता रहे लेकिन उसकी तार्किक बुद्धि उपरोक्त सवालों में उलझी ही रहती है | इसलिए यह आवश्यक है कि धर्म-संस्कृति की स्पष्ट मौलिक समझ विकसित की जाए तथा व्यवहारिक जीवन में इसकी उपयोगिता भी सिद्ध की जाए |
संक्षेप में कहे तो धर्म जीवन संबंधी मूलभूत सिद्धांत हैं, जिसे आत्मोन्नति व उत्तम सांसारिक सुखों के लिए धारण किया जाता है | विस्तार से कहें तो व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और आत्मा की उन्नति करने वाला, सांसारिक सुख व परम सुख अर्थात मोक्ष प्रदान करने वाला, धारण करने योग्य सदाचरण व कर्तव्य, श्रेष्ठ विधान, नियम, मर्यादा आदि धर्म की श्रेणी में आते हैं |
अब एक सवाल यह है कि जीवन संबंधी इन मूलभूत सिद्धांतों अर्थात धर्म का आधार क्या है ? क्योंकि आज तो धर्म के नाम पर कुछ भी बोला, लिखा व किया जा रहा है |
यह सच है की आज लोभ, अज्ञानता, अहंकार आदि के कारण भले धर्म के नाम पर कुछ भी कहा, लिखा व किया जा रहा है लेकिन वास्तव में शाश्वत शुध्द धर्म का आधार ‘सत्य’ है | सत्य पर आधारित होने के कारण ही वैदिक धर्म को सनातन कहा जाता है |
सनातन का अर्थ है जो सदा-सर्वदा अस्तित्व में रह सके | वही व्यवस्था या जीवन पद्धति सदा अस्तित्व में रह सकती है जो सत्याधारित हो | असत्य पर आधारित कोई भी सिद्धांत या उस पर आधारित व्यवस्था सनातन अर्थात सदा सर्वदा अस्तित्व में रहने वाली नहीं हो सकती | शाब्दिक दृष्टि से धर्म व सत्य अलग-अलग लगते हैं | लेकिन सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो धर्म व सत्य एक ही है |
अब अगला सवाल उत्पन्न होता है कि यदि धर्म का आधार सत्य है तो इस परम सत्य का स्रोत क्या है ? तो इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर है कि धर्म को आधार देने वाली सत्य विद्या का मूल स्रोत सृष्टि के प्रारंभ में परमेश्वर द्वारा दिए गए वेद हैं | अर्थात धर्म का मूल स्रोत वेद है | मनुस्मृति जिसे मानवधर्मशास्त्र के नाम से भी विभूषित किया जाता है स्पष्ट घोषणा करता है कि “वेदोSखिलो धर्ममूलम” अर्थात “वेद ही धर्म के मूलाधार हैं|” वेद ही परम प्रमाण है | उसी से धर्म व अधर्म का निश्चय किया जाए | आधुनिक विद्वान भी स्वीकार करते हैं कि वेद दुनिया के पुस्तकालय की सबसे प्राचीन पुस्तक है | जब सबसे प्राचीन पुस्तक वेद है तो इसका विषय जीवन संबंधी मूलभूत सिद्धांत अर्थात धर्म ही होना है |
अब संस्कृति के प्रश्न पर विचार करते हैं की संस्कृति क्या है ? धर्म से इसका क्या संबंध है? तथा हमारे जीवन में संस्कृति की क्या भूमिका है? जीवन के मूलभूत सिद्धांतों व कर्तव्यों जिसे हमने धर्म के रूप में समझा है उसी धर्म का व्यवहार पक्ष संस्कृति है | संस्कृति के कई पक्ष स्थानविशेष के भौगोलिक स्थितियों पर भी कुछ हद तक निर्भर करते हैं लेकिन इनका प्रभाव बहुत ऊपरी व छिछले स्तर पर ही है | किसी संस्कृति का वास्तविक आधार तो धर्म ही है | संस्कृति का मूल आधार किसी समुदाय की विश्वास प्रणाली, उनकी मान्यताओं आदि पर ही निर्भर करता है | संस्कृति का सत्य से भी गहरा सम्बन्ध है | किसी समुदाय की धार्मिक मान्यताएं सत्य के जितनी निकट होगी उसपर आधारित संस्कृति उतनी ही संबंधित समुदाय व विश्व के लिए कल्याणकारी होगी | सत्य से जितना समझौता होगा संस्कृत उतनी ही विकृत होकर जन वा जग के विनाश का कारण बनेगी |
धर्म व संस्कृति के विभिन्न पक्षों को समझने के बाद अब जीवन में इसकी उपयोगिता पर विचार करते हैं | जैसा कि हमने चर्चा किया कि धर्म जीवन के मूलभूत सिद्धांत व कर्त्तव्य हैं तथा संस्कृति उसका व्यावहारिक पक्ष है | तो यदि व्यक्ति जीवन जीने के मूलभूत सिद्धांतों व उसके व्यावहारिक पक्षों से अच्छे से परिचित ही नहीं होगा तो जीवन में तरह-तरह की समस्याएं – बाधाएं आएंगी ही | जैसे किसी व्यक्ति को गाड़ी चलाने की जिम्मेदारी मिली है, वह इस जिम्मेदारी को स्वीकार भी कर लेता है लेकिन यदि उसे गाड़ी चलाने के मूलभूत सैद्धांतिक व व्यावहारिक पक्षों की ठीक-ठीक जानकारी न हो तो वह गाड़ी नहीं चला सकता | यदि कुछ काम चलाऊ जानकारी प्राप्त भी कर ली जाए तब भी संभव है कि रास्ते में कहीं दुर्घटना हो जाए | जब बिना सटीक जानकारी के एक मानव निर्मित गाड़ी को चलना खतरे से खाली नहीं तो परमात्मा निर्मित इस जीवन रूपी गाड़ी को बिना इसके सैद्धांतिक व व्यावहारिक पक्षों को जाने चलाना कैसे संभव होगा |
आज की पीढ़ी धर्म – संस्कृति का जीवन में ठीक-ठीक उपयोग नहीं समझती | जीवन संबंधी सभी पक्षों में वैज्ञानिकता को खोजती है, लेकिन धर्म-संस्कृति के वैज्ञानिक पहलुओं पर विचार नहीं कर पाती | इसीलिए आज लगभग हर व्यक्ति विभिन्न शारीरिक – मानसिक समस्याओं से ग्रस्त है | अधिकतर लोग आत्मिक दृष्टि से भी एक खालीपन का अनुभव कर रहे हैं | जबकि पिछली पीढ़ीयां शारीरिक, मानसिक व आत्मिक दृष्टि से ज्यादा मजबूत थी |
वास्तविकता तो यह है कि कुछ प्रक्षिप्त बातों को छोड़ दिया जाए तो धर्म व संस्कृति पूर्णतः सनातन व वैज्ञानिक अवधारणायें हैं | इनका समुचित उपयोग किए बिना जीवन में सुख, शांति व उन्नति संभव नहीं | शास्त्रों में कहा गया है कि धर्म ऐश्वर्य को देने वाला व सुखों की वर्षा करने वाला है | इस संसार में एक धर्म ही सच्चा मित्र है | अतः तर्क बुद्धि का प्रयोग कर धर्म व संस्कृति के वैज्ञानिक पक्षों को खोजते हुए उसका जीवन में उपयोग न सिर्फ व्यक्ति वरन संपूर्ण मानवता के लिए कल्याणकारी है |