श्री कृष्ण का शोकग्रस्त युधिष्ठिर को दिया गया उपदेश, मृत्यु अकाट्य सत्य है, महाभारत-कथा “life-changing” and “eye-opening” Mahabharat Story
महाभारत युद्ध के पहले इस युद्ध के परिणामों को लेकर शोकग्रस्त हुए अर्जुन को श्री कृष्ण द्वारा दिया गया गीता का उपदेश तो विश्वप्रसिद्ध है लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इस युद्ध के उपरांत युधिष्ठिर भी जब युद्ध के परिणामों को लेकर अत्यंत दुखी हो गए तो श्रीकृष्ण ने उन्हें भी एक महान उपदेश दिया |
महाभारत युद्ध के बाद पांडवों में सबसे बड़े धर्मराज युधिष्ठिर युद्ध के विनाशकारी परिणाम को देख स्वयं को दोषी मानने लगे । वह इससे अत्यंत दुखी हो गए । वह स्वयं को अपने भाइयों का घातक, कुल का नाश करने वाला व राज्य का लोभी मानने लगे ।
उनकी यह स्थिति देख अन्य सभी पांडवों, द्रोपदी तथा व्यास जी ने अपने-अपने विद्वतापूर्ण वचनों से युधिष्ठर जी को समझाया । लेकिन उनका शोक किसी प्रकार से जा ही नहीं रहा था । फिर निंद्रा विजयी अर्जुन के कहने पर श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को एक महान उपदेश दिया । श्रीकृष्ण ने जो कुछ कहा वह गीता उपदेश के समान ही हमारे लिए एक महान ज्ञान का स्रोत है ।
श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर की भुजा को अपने हाथों में ले अत्यंत प्रेम पूर्वक उनसे बोला – “पुरुषसिंह तुम शोक ना करो । शोक तो शरीर को सुखा देता है । स्वप्न में मिला हुआ धन जैसे जागने पर मिथ्या हो जाता है उसी प्रकार जो योद्धा युद्ध में मारे गए हैं अब उनका पुनः मिल पाना दुर्लभ है | महायुद्ध में मारे गए सभी योद्धाओं का कल्याण हुआ है अतः उनके लिए शोक नहीं करना चाहिए |”
इसके बाद श्री कृष्ण ने इस संदर्भ में युधिष्ठिर को प्राचीन इतिहास का एक संवाद सुनाया | यह संवाद देवर्षि नारद व सृंजय के मध्य का है | सृंजय का पुत्र अकाल ही मृत्यु को प्राप्त हुआ था | अतः सृंजय अत्यंत दुखी हो जाता है | इसपर सृंजय को समझाते हुए देवर्षि कहते हैं -“सृंजय एक दिन हम सब लोग मरेंगे | यह इस संसार का अकाट्य सत्य है | तो फिर अपने पुत्र के लिए तुम इतना शोक क्यों करते हो ?”
इसके बाद देवर्षि नारद ने पूर्ववर्ती महान राजाओं की कीर्ति व गौरव का वर्णन करते हुए कहा कि हे सृंजय ! अविक्षित के पुत्र राजा मरुत्त थे | इन्होंने अपने यज्ञ वैभव से इंद्र को पराजित कर दिया था | जिस समय राजा मरुत्त इस पृथ्वी पर शासन करते थे उस समय यह पृथ्वी बिना जोते-बोये ही अन्न उत्पन्न करती थी | लोग स्वस्थ थे तथा संपूर्ण भूमंडल में भव्य भवने दिखती थी | धर्म, ज्ञान, वैराग्य व ऐश्वर्य में राजा मरुत्त स्वयं भी बहुत बढ़े- चढ़े थे | लेकिन एक दिन वे भी इस संसार से विदा हुए |
संपूर्ण पृथ्वी को अपने अधीन कर लेने वाले उशीनर के पुत्र राजा शिबि भी काल का ग्रास बने | अंतिम दिवस उनका भी आया |
दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र महातेजस्वी भरत ने अनेक अश्वमेध व राजसूर्य यज्ञ संपन्न किए थे | संपूर्ण राजाओं में भरत का जो महान कर्म है उसका दूसरे राजा अनुकरण नहीं कर सकते | वैसे महामनस्वी भरत भी मृत्यु के अधीन हो गए |
महाराज दिलीप के राजप्रसाद में तीन प्रकार के शब्द सदा गूंजते रहते थे – वेदों के स्वाध्याय का गंभीर घोष, शूरवीरों क धनुष की टंकार और दान दो की पुकार | लेकिन राजा दिलीप भी काल धर्म अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो गए |
इसके बाद दशरथ नंदन श्रीराम का उल्लेख करते हुए नारद जी ने कहा कि श्रीराम सदा अपनी प्रजा पर पिता जैसे कृपालु बने रहते थे | उनके राज्य में कोई भी स्त्री विधवा और कोई बच्चा अनाथ नहीं हुआ, बादल समय पर वर्षा करके खेती को अच्छे से संपन्न करता था तथा उसे बढ़ने और फलने-फूलने का अवसर देता था |
उनके राज्य में कभी अकाल नहीं पड़ता था, राम-राज्य में कहीं भी मच्छर और डांस नहीं थे, सांप बिच्छू नष्ट हो गए थे, नदियों में बाढ़ नहीं आती थी, नदियों में डूब कर प्राणियों की मृत्यु भी नहीं होती थी | श्रीराम के शासन में सभी वृक्ष बिना किसी विघ्न-बाधा के नित्य फले-फूले रहते थे तथा गौएं पर्याप्त दूध देती थी | लेकिन समय पूरा हो जाने पर श्रीरामचन्द्र ने भी भू-लोक का त्याग किया |
संकृति के पुत्र राजा रन्तिदेव ने कठोर तप करके परमात्मा से प्रार्थना की – “हमारे पास बहुत अन्न हो, हमें सदा अतिथियों की सेवा का अवसर प्राप्त हो, हमारी श्रध्दा में कभी कमी ना आए तथा हम कभी किसी से कुछ ना मांगे |” परमात्मा ने उस महान तपस्वी की सभी इच्छाएं पूरी भी की | लेकिन ऐसा प्रजापालक नरेश भी समय आने पर यहाँ से विदा हुआ |
इतने महान राजाओं की गति सुनाते हुए नारद जी ने सृंजय से कहा मृत्यु अवश्यम्भावी है | अतः हे राजेंद्र ! तुम भी अपने हृदय में उत्पन्न हुए इस पुत्र शोक को बुद्धि का सहारा लेकर त्याग दो | देवर्षि नारद की ज्ञानपूर्ण बातें सुन राजा सृंजय को सृष्टि का नियम समझ में आया कि जो आया है उसे अपने कर्मों के अनुसार देर-सबेर जाना ही है | हमारे शोक करने से कुछ नहीं होने वाला | यह सोचते हुए उसने अपने दुख को त्याग दिया |
नारद-सृंजय संवाद की यह कथा श्री कृष्ण युधिष्ठिर को सुना रहे थे | अतः युधिष्ठिर ने भी इस कथा के मर्म को समझते हुए महाभारत युद्ध में अपनी भूमिका को सृष्टि नियम व कर्म फल व्यवस्था के अनुरूप समझकर स्वयं को शांत किया और अपने शोक को त्यागा ।