महाभारत के शांति पर्व में युधिष्ठिर ज्ञान में सबसे बढे – चढ़े पितामह भीष्म से धर्म संबंधी विभिन्न विषयों पर अपनी शंकाओं का समाधान पा रहे होते हैं | पितामह बाणशय्या पर लेटे पर हैं व उनका शरीर पीड़ा के कारण शिथिल व मन अत्यंत व्यथित है | लेकिन सब धर्म के ज्ञाता व सर्वज्ञ (धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को जानने वाले) गंगापुत्र भीष्म युधिष्ठिर के द्वारा पूछे जा रहे सभी प्रश्नों का अत्यंत प्रेम पूर्वक उत्तर दे रहे थे | प्रश्नों की श्रृंखला में युधिष्ठिर ने अपना अगला प्रश्न पूछा कि पितामह ! राजा को क्या करना चाहिए जिससे वह अपने कर्तव्य पालन के साथ ही सुखी भी रह सके ? इसके उत्तर में भीष्म जी ने राजा युधिष्ठिर को एक ऊंट की प्रसिद्ध कथा सुना कर कहा कि राजा को वैसा आचरण नहीं करना चाहिए |
तो मित्रों चलिए सुनते हैं उस ऊंट की कहानी जिससे हमें भी अपने जीवन में क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए, उसकी सीख मिले |
सतयुग में एक ऐसा ऊंट था जिसे अपने पूर्वजन्मों की स्मृति थी | उसने अपनी इच्छा की पूर्ति हेतु कठोर व्रत का पालन करते हुए वन में भीषण तप आरंभ किया | उसने लगातार 9 दिनों तक एक स्थान पर ही स्थिर रहकर बिना कुछ खाए पिए एकाग्रचित होकर तप किया | उसकी तपस्या से प्रसन्न हो परमपिता ब्रह्मा ने उसे वर मांगने को कहा | वैसे तो उस ऊंट को अपने पूर्व जन्मों की स्मृतियां थी, वह धर्मात्मा भी था | लेकिन वह अपने कर्म को लेकर थोड़ा आलसी था | अत: परमपिता ब्रह्मा से उस ऊंट ने अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप ही वर मांगा | उसने कहा भगवन ! आपकी कृपा से मेरी गर्दन बहुत लंबी हो जाए जिससे जब मैं चरने के लिए जाऊं तो एक ही जगह से सौ योजन तक चर सकूँ | पहले तो ब्रह्मा जी मुस्कुराए फिर उन्होंने, ‘एवमस्तु’ कहकर उसे उसकी इच्छा के अनुरूप वर दे दिया | वर पाकर ऊंट बहुत खुश हो गया |
लेकिन यह वरदान पाकर वह ऊंट और आलसी बन गया | वह एक स्थान पर बैठे-बैठे ही सौ योजन अपनी लंबी गर्दन फैला कर चरता रहता था | उसका मन चरने से कभी थकता ही नहीं था | उसका वजन भी पहले से दो गुना हो गया था |
एक दिन वह ऊंट घास चरने के बाद अपनी गर्दन को एक गुफा में डालकर आराम कर रहा था | इतने में ही भारी वर्षा के साथ जोरदार हवा चलने लगी |
एक गीदड़ जो आसपास ही था वर्षा व आंधी – तूफान से बचने के लिए अपनी गीदड़ी के साथ उस गुफा में आ घुसा |
ये दोनों भूखे भी थे, तो जैसे ही उन्हें ऊंट की गर्दन दिखी दोनों उस पर टूट पड़े और उसके मांस को काट-काट कर खाने लगे | इधर ऊंट को जब उसके गर्दन के मांस को नोचने व काटने का पता चला तो वह दर्द से पीड़ित हो अपने गर्दन को समेटने लगा | लेकिन जब तक ऊंट संभलता गीदड़ -गीदड़ी उसके गर्दन को लगभग खा चुके थे | इस प्रकार अपने आलस्य व अपनी विशेषता का दुरुपयोग करने के कारण मूर्ख बने ऊंट की यह दशा हुई |
इस शिक्षाप्रद कथा का मर्म समझाते हुए पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को कहा – “तुम्हें भी ऐसे आलस्य को छोड़कर अपनी इंद्रियों को वश में रखते हुए बुद्धिपूर्वक बर्ताव करना चाहिए | मनु महाराज का कहना है कि संकट में पड़े राजा की विजय का मूल कारण बुद्धिबल ही है |
बुद्धिबल से किए गए कार्य श्रेष्ठ होते हैं | बाहुबल से किए जाने वाले कार्य मध्यम हैं | जांघ व पैर के बल पर किए गए कर्म अधम कोटि के व सिर पर भार ढोने के कार्य सबसे निम्न होते हैं |” पितामह ने राजा युधिष्ठिर को संबोधित करते हुए आगे कहा कि जो भली – भांति कार्य करता है, उसके पास ही धन स्थिर रहता है | अतः भली – भांति व बुद्धिमत्ता पूर्वक हर कार्य को करना चाहिए |
नोट – कहानी किसी विषय को समझने के लिए रचा जाता है | कई बार विषय को आसान व रोचक बनाने के लिए ऊंट के तपस्या करने, ब्रह्मा जी के वरदान देने व ऊंट के सौ योजन लंबी गर्दन होने जैसी असामान्य बातों का भी सहारा लिया जाता है | पाठक युधिष्ठिर के समान केवल कहानी के मर्म को ही समझने का प्रयास करें |